Ranjeet Bhartiya 24/01/2022
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Last Updated on 13/06/2022 by Sarvan Kumar

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की एक विशेषता यह भी है कि इसमें महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. इस संग्राम में महिलाओं ने ना केवल आजादी के दीवाने क्रांतिकारियों की सहायक की भूमिका अदा की थी, बल्कि युद्ध में स्वयं अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया था. मिसाल के तौर पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और अवध की शासक बेगम हजरत महल, जो खुद भी युद्ध में हिस्सा लेती थीं. इसी कड़ी में वीर पासी योद्धा वीरांगना ऊदा देवी पासी ने लखनऊ के सिकंदर बाग में
अपनी साहस, वीरता और बलिदान की अमिट अमरगाथा इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित करा दी. सिकंदर बाग के युद्ध में वह ना केवल बहादुरी से लड़ीं, बल्कि मौत को गले से लगाने से पहले 32 अंग्रेज सैनिकों और अफसरों को मौत के घाट उतार  कर अपने पति मक्का पासी के बलिदान का बदला लिया. साथ ही अपने पराक्रम से अकेले दम पर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग में प्रवेश करने से काफी समय तक रोके रखा.आइए जानते हैैं पासी समाज की लक्ष्मीबाई ऊदा देवी का जीवन परिचय और उनके वीरता की अमर कहानी.

ऊदा देवी का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

ऊदा देवी (Uda Devi) का जन्म उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में एक पासी (Pasi) परिवार में हुआ था. इनके जन्मदिन के बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिलने के कारण, इनकी जन्म की तारीख के बारे में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है. आमतौर पर, यह कहा जाता है कि इनका जन्म 1830 के आसपास हुआ था. ऊदा देवी बचपन से ही जुझारू प्रवृत्ति की थीं.

ऊदा देवी के पति का नाम

13 साल की कम आयु में हीं इनका विवाह लखनऊ के मक्का पासी (Makka Pasi) नाम के युवक से कर दी गई. विवाह के बाद जब वह मायके से ससुराल पहुंची तो ससुराल वालों ने प्यार से अपनी लाडली बहू का नाम रखा-जगरानी.

वाजिद अली शाह नवाब के सेना में भर्ती

मक्का पासी अवध के ग्यारहवें और अंतिम नवाब
वाजिद अली शाह (Wajid Ali Shah) की सेना में एक सैनिक थे. मक्का पासी साहसी और बहादुर थे. अपने पति को सेना में शामिल होता देखकर ऊदा देवी को भी प्रेरणा मिली और वह नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते में शामिल हो गई. दरअसल, उस समय का तत्कालीन भारत छोटे-छोटे रियासतों में विभाजित था. देसी रियासतों पर अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा था. चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था. ऐसे में महल की रक्षा के उद्देश्य से नवाब वाजिद अली शाह ने महिलाओं का एक सुरक्षा दस्ता बनाया था. इसी महिला दस्ता में एक सदस्य के रूप में ऊदा देवी को नियुक्त किया गया था. ऊदा देवी शारीरिक रूप से बहुत फुर्तीली थीं. बहादुर होने के साथ-साथ इनमें तुरंत निर्णय लेने की गजब की क्षमता थी. ऊदा देवी की इन सब विशेषताओं से नवाब की बेगम और भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिकाओं में से एक बेगम हजरत महल अत्यंत प्रभावित हुई. महिला दस्ते में शामिल होने के कुछ दिन बाद ही उन्हें बेगम हजरत महल की महिला सेना की टुकड़ी का कमांडर बना दिया गया.

चिनहट की लड़ाई (Battle of Chinhat)

10 जून 1857 को अंग्रेजों ने अवध पर हमला कर दिया. लखनऊ के चिनहट कस्बा के पास इस्माइलगंज में ब्रिटिश सेनाओं और भारतीय विद्रोहियों के बीच ऐतिहासिक लड़ाई हुई. इस लड़ाई में मौलवी अहमदुल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित विद्रोही सेना ने हेनरी लॉरेंस के नेतृत्व वाली ब्रिटिश फौज का मैदान छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया. चिनहट की इस ऐतिहासिक लड़ाई में विद्रोही सेना की जीत और अंग्रेजी फौज की हार को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक माना जाता है.

मक्का पासी की मृत्यु

इस्माइलगंज ब्रिटिश हुकूमत की सैनिक टुकड़ी से मौलवी अहमदुल्लाह शाह के नेतृत्व में जो पलटन लड़ रही थी, उसमें मक्का पासी भी थे. अंग्रेजो के खिलाफ बहादुरी से लड़ते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुए. पति के शहादत की खबर जब ऊदा देवी तक पहुंची तो वह रोने लगी और उन्होंने अंग्रेजों से इसका बदला लेने का संकल्प लिया. कहा जाता है कि चिनहट के इस युद्ध में स्वयं बेगम हजरत महल गई थी. हजरत महल के साथ ऊदा देवी भी थी. हजरत महल ले अपने घायल सैनिकों की स्वयं देखभाल किया था और जो सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए थे, उनके शरीर पर खुद कफन डाला था. अचानक एक लाश के पास आकर ऊदा देवी ठिठक गई और चित्कार मारकर फूट-फूट कर रोने लगी. वह लाश ऊदा देवी के पति मक्का पासी का था. खुद को थोड़ा संभाल कर वह घायल शेरनी की तरह दहाड़ने लगी. अपने पति के शव पर ऊदा देवी ने कसम खाई कि वह इसका बदला अंग्रेजों से जरूर लेंगी. ऊदा देवी को अपने पति के बलिदान का प्रतिशोध लेने का अवसर भी शीघ्र ही सिकंदर बाग के युद्ध में प्राप्त हुआ.

Sikandra Bagh exterior: Image : Wikimedia Commons

सिकंदर बाग का युद्ध

पति के मौत के बाद ऊदा देवी ने विकराल रूप धारण कर लिया और वह पहले से भी ज्यादा खूंखार बन गई. वह पहले से ही नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते में थीं, बेगम हजरत महल की सहायता से उन्होंने महिला लड़ाकूओं का एक अलग बटालियन भी बना लिया. साल 1857, सर्दियों का मौसम आ चुका था. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह और आजादी के मतवाले स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए अंग्रेजों का दमन चक्र अपने चरम पर था. कानपुर में अपना दमन चक्र चलाने के बाद जनरल काल्विन कैंपबेल लखनऊ से भी स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए अपनी फौज के साथ लखनऊ की तरफ तेजी से बढ़ रहा था. जनरल कैंपबेल ने लखनऊ की घेराबंदी कर दी. बेगम हजरत महल किसी तरह से घेराबंदी से निकलने में सफल रहीं. चिनहट की लड़ाई में हार के बाद अंग्रेज सकते में थे, वह किसी भी कीमत पर इसका बदला लेना चाहते थे. चिनहट की लड़ाई के बाद सिकंदर बाग की लड़ाई की बारी थी. ब्रिटिश सेना लखनऊ के आलमबाग में लड़ाई जीतकर सिकंदरबाग पहुंची. यही पर जनरल काल्विन कैंपबेल अगुवाई वाली ब्रिटिश सेना का सामना नवाब वाजिद अली शाह की महिला छापामार टुकड़ी से हुई, जिसका नेतृत्व ऊदा देवी कर रही थी. अंग्रेजों को पता चला कि दो हजार की संख्या में विद्रोही सैनिकों ने लखनऊ के सिकंदर बाग में शरण ले रखी है. 16 नवंबर 1857 को जनरल काल्विन कैंपबेल के नेतृत्व में अंग्रेज सैनिकों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत उस समय सिकंदर बाग की घेराबंदी कर दी जब विद्रोही सैनिक या तो सो रहे थे या बिल्कुल असावधान अवस्था में थे. अंग्रेज सैनिक असावधान और निहत्थे विद्रोही सैनिकों की बेरहमी से हत्या करते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे थे. सैकड़ों विद्रोही सैनिक मारे जा चुके थे.

ऊदा देवी की शहादत

अचानक अंग्रेजी फौज पर गोलियों की बौछार होने लगी. अंग्रेजी सैनिकों की लाशें जमीन पर बिछने लगी.
एक-एक करके 32 अंग्रेजी सैनिक मार डाले गए और अनगिनत घायल हो गए. अंग्रेजी सेना में भगदड़ मच गई, वह जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे और उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. सभी हैरान थे. किसी को समझ नहीं आ रहा था की गोलियां कहां से चल रही है और उसे कौन चला रहा है. जब गोलियों की बौछार थमी तो अंग्रेज मारे गए सैनिकों को देखने गए. मारे गए सैनिकों के शरीर पर जख्म के निशान देखकर अंग्रेज सकते में आ गए . उन्होंने देखा कि सभी के शरीर पर एक जैसे ही निशान हैं. गोली सबके सिर या कंधों पर लगी है. उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि सैनिकों की मौत रणभूमि में आमने-सामने से चली गोलियों से नहीं हुई है, बल्कि उनकी मौत ऊपर से चलाई गई गोलियों से हुई है. अंग्रेजों की निगाहें ऊपर की ओर उठीं. आसपास नजर उठाकर देखने पर उन्हें पास के पीपल के पेड़ के झुरमुट में एक हल्की सी हलचल महसूस हुई. उनकी बंदूकें पीपल के पेड़ की तरफ तन गई. आदेश मिलते ही उन्होंने पीपल के पेड़ पर ताबड़तोड़ गोलियों का बौछार कर दिया. शीघ्र ही गोलियों से छलनी एक अज्ञात व्यक्ति का शरीर पीपल के पेड़ से नीचे गिरा. नीचे गिरने से एक झटके के साथ उसकी जैकेट खुल गई. अंग्रेजों ने देखा कि पेड़ से नीचे गिरने वाला व्यक्ति कोई पुरुष नहीं, बल्कि एक महिला है. वह महिला कोई और नहीं बल्कि ऊदा देवी थी!

The ruins of Sikandar Bagh palace showing the skeletal remains of rebels in the foreground, Lucknow, India. Albumen silver print by Felice Beato, 1858. Image: Wikimedia Commons

पति के बलिदान का प्रतिशोध

दरअसल, जब अंग्रेज सैनिक सिकंदर बाग में भारतीय विद्रोही सैनिकों की बेरहमी से हत्या करते हुए आगे बढ़ रहे थे तो हार और मृत्यु सामने नजर आ रही थी. लेकिन ऊदा देवी को किसी भी सूरत में अपने पति मक्का पासी के बलिदान का बदला लेना था. ऐसे में उन्होंने अपने सर पर कफन बांध कर के पूरी ताकत के साथ अंग्रेजों से लड़ने का फैसला किया. अंग्रेजों को चकमा देने के लिए वह पुरुषों का वस्त्र धारण करके, खुद को एक पुरुष के रूप में तैयार करके, पिस्तौल और गोलियों को लेकर एक ऊंचे पीपल के पेड़ पर चढ़ गई. पीपल के पेड़ से सैकड़ों फायर करके 32 अंग्रेज सैनिकों और अफसरों को मार कर उन्होंने अंग्रेजों से अपने पति के बलिदान का प्रतिशोध ले लिया.

अंग्रेजी अफसर ने की ऊदा देवी की वीरता की प्रशंसा

अंग्रेजी सैनिक और जनरल काल्विन इस महिला के अदम्य साहस से चकित और अचंभित थे. ऊदा देवी की वीरता को देखकर जनरल काल्विन इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने अपना हैट उतार कर ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी. सार्जेण्ट विलियम फोर्ब्स-मिशेल (William Forbes-Mitchell) ने अपनी किताब “Reminiscences of the Great Mutiny, 1857-59” में 1857 के महान विद्रोह के बारे में विस्तार से लिखा है. इस संस्मरण ऊदा देवी के और वीरता की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा है कि
“सिकंदर बाग के अंदरूनी हिस्से के बीच में पीपल का एक विशाल और घना वृक्ष था. पेड़ के नीचे ठंडे पानी के बहुत सारे मिट्टी के मटके रखे हुए थे. जब सिकंदर बाग के भीषण युद्ध का अंत हुआ तो थके हारे और भूखे प्यासे अंग्रेज सैनिक अपनी प्यास बुझाने और आराम करने पीपल के ठंडी छांव के नीचे आए. यहां उन्हें बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेना के मरे पड़े जवान मिले. जब कैप्टन डॉसन का ध्यान मरे हुए सिपाहियों के जख्मों पर गया तो वह चौक गए. मरे हुए सैनिकों के घाव से पता चल रहा था कि की मौत ऊपर से चलाई गई गोलियों से हुई है. कैप्टन डॉसन शीघ्रता से छाया से बाहर निकले और क्वेकर वालेस से पीपल के पेड़ का मुआयना करने को कहा. वालेस ने अपनी भरी हुई बंदूक लेकर, सावधानी से पीछे हटते हुए, पीपल के पेड़ का मुआयना करना शुरू कर दिया. उसे छिपा एक व्यक्ति दिखा. फिर उसने निशाना साधकर गोली चला दी. गोली लगते हीं पीपल से किसी अज्ञात व्यक्ति का शरीर नीचे गिरा. झटके से नीचे गिरने के कारण उस व्यक्ति की जैकेट खुल गई तो पता चला कि पेड़ से गिरने वाला व्यक्ति कोई पुरुष नहीं बल्कि एक स्त्री थी. महिला पुराने मॉडल की दो पिस्तौलों से लैस थी. एक पिस्तौल खाली थी, जबकि दूसरी अभी भी गोलियां भरी हुई थी. उसकी आधी जेब भी गोलियां भरी हुई थी, जिसे सावधानीपूर्वक बनाया गया था.वालेस ने जब देखा कि पेड़ पर बैठे हुए जिस व्यक्ति को उस ने गोली मारी वह पुरुष नहीं बल्कि एक स्त्री थी तो उसने अपना माथा पीट लिया और रोने लगा. उसने कहा अगर मुझे पता होता कि वह औरत है तो मैं हजार बार मर जाता लेकिन उसे नुकसान नहीं पहुंचाता. यह महिलाएं कोई और नहीं ऊदा देवी थी.” ऊदा देवी की साहस, वीरता और बलिदान की कहानी जब लंदन टाइम्स समेत अन्य अंतर्राष्ट्रीय अखबारों में छपी तो  खलबली मच गई. लंदन टाइम्स के तत्कालीन रिपोर्टर विलियम हावर्ड रसेल ने लंदन खबर भेजा कि पुरुष वेश में एक महिला ने पीपल के पेड़ से गोलीबारी करके अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुंचाई है.

Picture of Uda devi :महान वीरांगना ऊदा देवी पासी की तस्वीर

वीरांगना ऊदा देवी किसी से कम नही

यह कहना गलत नहीं होगा कि इतिहास में वीरांगना ऊदा देवी को वह यश और सम्मान नहीं प्राप्त हुआ, जिसकी वह हकदार थीं. ऊंची जाति के इतिहासकारों ने रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगनाओं के बारे में तो बहुत लिखा है, लेकिन आजादी के संग्राम में ऊदा देवी जैसी दलित वीरांगनाओं की भूमिका को या तो नजरअंदाज किया है या उनके बारे में बहुत कम लिखा गया है. ऊदा देवी की साहस वीरता और बलिदान का अंग्रेज अधिकारियों पर इतना व्यापक असर रहा कि उनकी वीरता के बारे में भारतीय इतिहासकारों से ज्यादा अंग्रेज पत्रकारों और अधिकारियों ने लिखा है. पीलीभीत के पासी, विशेष रूप से, हर साल 16 नवंबर को ऊदा देवी की शहादत (Uda Devi’s martyrdom) की वर्षगांठ मनाने के लिए इकट्ठा होते हैं. ऊदा देवी का बलिदान अनंत काल तक देश की महिलाओं और दलित समुदाय से आने वाले लोगो के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगी.


References:

Reminiscences of the Great Mutiny, 1857-59: Including the Relief, Siege, and Capture of Lucknow, and the Campaigns in Rohilcund and Oude : Book by William Forbes-Mitchell

1857 ki RajKranti: Vichar aur Vishleshan: By Karmendu Śiśira

Bharteeya Naree Yodhdayein: By Arun Sinha

Mutiny at the Margins: New Perspectives on the Indian Uprising of 1857: Documents of the Indian Uprising

Women Heroes and Dalit Assertion in North India: Culture, Identity and Politics: By Badri Narayan

https://m.thewire.in/article/gender/the-forgotten-women-of-1857

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