
भारत साधु-संतों की भूमि है. संत अपार ज्ञान का भंडार होते हैं. उनके संगति से हमारी प्रवृत्ति सदाचार की ओर अग्रसर होती है. जब-जब समाज अज्ञान के अंधकार में डूबा, हमारे संतो ने अपने ज्ञान से समाज को प्रकाशित करने का कार्य किया. जब-जब समाज में कुरीतियों का बोलबाला हुआ, संतो ने अपने प्रवचन और उपदेश के माध्यम से समाज को रास्ता दिखाने का कार्य किया. इनमें से कईयों ने काव्य की रचना की ताकि ना केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी संतो के अमृत वचनों का लाभ मिलता रहे. इसी क्रम में आइए जानते हैं संत रविदास के दोहे के बारे में.
संत रविदास के दोहे
भक्ति आंदोलन मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसका उद्देश्य धार्मिक सुधार के माध्यम से सामाजिक सुधार लाना था. इस दौरान भारत की पुण्य वसुंधरा पर कई महापुरुषों ने जन्म लिया जैसे कि कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास और रविदास आदि, जिन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से कुरीतियों से घिरे समाज में नई चेतना जागृत करने का काम किया. रविदास, या रैदास, 15वीं से 16वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान भक्ति आंदोलन के महान रहस्यवादी कवि-संत, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु थे. अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत, जात-पात, धार्मिक आडंबरों और पुरोहित वर्ग के वर्चस्व का प्रतिवाद किया. नीचे हम संत शिरोमणि रविदास जी के 20 प्रसिद्ध दोहों का उल्लेख कर रहे ह
1️⃣
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न |
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न ||
2️⃣
मन चंगा तो कठोती में गंगा
3️⃣
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन |
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण ||
4️⃣
रविदास’ जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच |
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच ||
5️⃣
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा | वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा ||
6️⃣
करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस |
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास ||
7️⃣
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस |
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास ||
8️⃣
रैदास कहै जाकै हृदै, रहे रैन दिन राम |
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम ||
9️⃣
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात |
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात ||
1️⃣0️⃣
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै |
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै ||
1️⃣1️⃣
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड में बास |
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रैदास ||
1️⃣2️⃣
मन ही पूजा मन ही धूप |
मन ही सेऊं सहज स्वरूप ||
1️⃣3️⃣
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस |
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास ||
1️⃣4️⃣
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा |
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा ||
1️⃣5️⃣
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं |
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि ||
1️⃣6️⃣
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की |
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की ||
1️⃣7️⃣
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड मेँ बास |
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रविदास ||
1️⃣8️⃣
कह रविदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै |
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै ||
1️⃣9️⃣
दया धर्म जिन्ह में नहीं, हद्य पाप को कीच |
रविदास जिन्हहि जानि हो महा पातकी नीच ||
2️⃣0️⃣
जात-पात के फेर मह उरझि रहे सब लोग |
मानुषता को खात है, रैदास जात का रोग ||

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