
हम अपनी बोलचाल में अनेक प्रकार की कहावतों और लोकोक्तियों का प्रयोग करते हैं. इससे हमारी भाषा रोचक बनती है तथा जटिल मनोभावों को व्यक्त करने में आसानी हो जाती है. ऐसी ही एक कहावत है- “मन चंगा तो कठोती में गंगा”. आइए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं.
मन चंगा तो कठोती में गंगा
सबसे पहले यह जान लेते हैं कि इस कहावत की रचना किसने की थी तथा इसका अर्थ क्या है. यह प्रसिद्ध उक्ति संत शिरोमणि रविदास जी की है. रविदास एक महान संत, दार्शनिक, समाज सुधारक और कवि थे. उन्होंने अपनी रचनाओं, दोहों और पदों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ उठाकर समाज में जागरूकता फैलाने का प्रयास किया था और समानता का संदेश दिया था. वह धर्म को सरल रूप में देखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने हमेशा धार्मिक आडंबर और धार्मिक नियमों की कठोरता का हमेशा विरोध किया.
मन चंगा तो कठोती में गंगा का अर्थ ?
इस उक्ति का अर्थ है- जिस व्यक्ति का मन निर्मल और पवित्र होता है, अंतःकरण शुद्ध होता है, उसके आह्वान पर मां गंगा एक कठौती में भी आ जाती हैं. अर्थात भक्ति के लिए किसी तीर्थ जाने या बाहरी आडंबर की आवश्यकता नहीं है. भक्ति के लिए केवल हृदय की पवित्रता और मन के अचंचलता की आवश्यकता होती है.
मन चंगा तो कठोती में गंगा किसने लिखा?
इस कहावत के पीछे एक रोचक कहानी है. संत रविदास का जन्म एक चर्मकार कुल में हुआ था. जीविकोपार्जन के लिए वह जूते बनाने का काम करते थे. एक बार एक ब्राह्मण उनके पास जूते ठीक कराने आया. रविदास ने ब्राह्मण से पूछा- आप कहां जा रहे हैं? ब्राह्मण ने जवाब दिया- मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं. तुम चमड़े का काम करने वाले क्या जानो गंगा स्नान का क्या महत्व है और गंगा स्नान करने से कितना पुण्य मिलता है. रविदास जी बोले- सही बात है श्रीमान, हम जैसे मलिन और निम्न लोगों के स्नान करने से माता गंगा भी अपवित्र हो जाएंगी. जूता मरम्मत हो जाने के बाद ब्राह्मण रविदास जी को मेहताने के रूप में एक मुद्रा देने लगा तो रविदास जी ने कहा कि आप यह मुद्रा मेरी तरफ से माता गंगा को चढ़ा देना. गंगा स्नान करने के बाद जब ब्राह्मण लौटने लगा तो उसे याद आया कि रविदास जी ने उसे गंगा माता को मुद्रा चढ़ाने के लिए दिया था. जैसे ही ब्राह्मण ने कहा- हे गंगे रैदास की मुद्रा स्वीकार करो, गंगा जी से एक हाथ प्रकट हुआ. एक आवाज आई- लाओ रविदास जी का भेंट मेरे हाथ पर रख दो. जब ब्राह्मण लौटने लगा तो फिर से एक आवाज आई- ब्राह्मण! ये भेंट मेरे ओर से रविदास जी को देना. ब्राह्मण ने पीछे मुड़कर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, गंगा जी के हाथ में एक रत्न जड़ित कंगन था. आश्चर्यचकित ब्राह्मण उस रत्न जड़ित कंगन को लेकर चल पड़ा. रास्ते में उसके मन में लोभ आ गया. उसने सोचा रविदास को कंगन देने से क्या फायदा? रविदास को यह कैसे पता चलेगा कि माता गंगा ने उसके लिए रत्न जड़ित कंगन भेंट के रूप में भेजा है. ब्राह्मण ने सोचा इस कंगन को राजा को देना ठीक रहेगा. इससे राजा प्रसन्न होकर उसे उपहार देंगे और मालामाल कर देंगे. उसने राजा को कंगन दिया, बदले में उपहार लेकर खुशी-खुशी घर चला गया. जब राजा ने वो कंगन रानी को दिया तो रानी खुश हो गई और बोली मुझे ऐसा ही एक और कंगन दूसरे हाथ के लिए भी चाहिए. राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर कहा वैसा ही एक और कंगन लाकर दे, अन्यथा उसे दंड का पात्र बनना पड़ेगा. ब्राह्मण के हाथ-पैर फूल गए. वह परेशान हो गया. डरा हुआ ब्राह्मण रविदास जी के पास पहुंचा और उसने रविदास जी को सारी सच्चाई बता दी. रविदास जी ब्राह्मण से बोले- आप परेशान ना हों, आप के प्राण बचाने के लिए मैं माता गंगा से दूसरे कंगन के लिए प्रार्थना करता हूं. ऐसा कहते हीं रविदास जी ने कठौती उठाई, जिसमें वो चमड़ा गलाते थे, उसमें पानी भरा था. रविदास जी सच्चे मन से माता गंगा का स्मरण करके प्रार्थना करने लगे. तभी कठौती में ठीक वैसा ही एक और कंगन प्रकट हो गया. रविदास जी ने वह कंगन ब्राह्मण को दे दिया जिससे उसके प्राणों की रक्षा हुई. सभी से यह कहावत प्रचलित है- ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’.

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