Ranjeet Bhartiya 23/10/2023
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Last Updated on 23/10/2023 by Sarvan Kumar

राजपूत-मुग़ल संबंधों के विकास को कई चरणों में विभाजित किया जा सकता है. प्रारंभ में राजपूतों की ओर से मुगलों का विरोध हुआ. हालाँकि, रणनीतिक विवाहों और राजनीतिक समझौतों के माध्यम से गठबंधन बनाए गए, जिससे सहयोग और स्थिरता का दौर शुरू हुआ. अकबर के शासनकाल के दौरान यह रिश्ता अपने चरम पर पहुंच गया, राजपूत शासक मुगल प्रशासन के अभिन्न अंग बन गए. हालाँकि, औरंगजेब के शासन के दौरान संघर्ष उभरे, संबंधों में तनाव आया और अंततः राजपूत-मुगल संबंधों के पतन का कारण बना. आइए इसी क्रम में राजपूत मुगल संबंधों के विकास के विभिन्न चरणों को विस्तार से समझें. राजपूतों और मुग़लों के बीच संबंध कई शताब्दियों तक विकास के विभिन्न चरणों से गुज़रे, यहां मुख्य चरण दिए गए हैं:

प्रारंभिक संबंध (1526-1556):

मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर का उत्तरी भारत पर विजय के दौरान पहली बार राजपूतों से सामना हुआ. राजपूत राज्यों ने शुरू में मुगल विस्तार का कड़ा विरोध किया. इसमें मेवाड़ के राणा सांगा और उनके जागीरदार तथा प्रतिष्ठित सेनापतियों में से एक राजा मेदिनी राय का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने बाबर का आक्रमक रूप से प्रतिरोध किया था. खानवा की लड़ाई 1527 में उत्तरी भारत पर वर्चस्व के लिए बाबर की सेना और राणा सांगा के नेतृत्व वाले राजपूत संघ के बीच लड़ी गई थी. इस युद्ध में राणा सांगा की हार हुई. राणा सांगा की इस हार का बहुआयामी प्रभाव पड़ा. 1928 में राणा सांगा की मृत्यु हो गई और राजपूत एकता खंडित हो गई. कुछ राजपूत शासकों ने प्रतिद्वंद्वी राजपूत गुटों या अन्य बाहरी खतरों का मुकाबला करने के लिए मुगलों के साथ गठबंधन कर लिया. यहां यह उल्लेखनीय है कि राजपूतों की शक्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी और मुगलों तथा राजपूतों के बीच बीच-बीच में संघर्ष होते रहते थे.

•अकबर द्वारा समेकन और एकीकरण (1556-1605):

मुगल वंश का तीसरा बादशाह अकबर सबसे दूरदर्शी और समझदार था. वह इस बात को जल्दी समझ गया कि केवल शक्ति के दम पर राजपूतों को वश में नहीं किया जा सकता है. इसीलिए उसने राजपूतों के प्रति सुलह और एकीकरण की नीति अपनाई, जिसे राजपूत नीति के रूप में जाना जाता है. अकबर ने राजपूतों के साथ गठबंधन बनाने और सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए, अकबर ने जोधा बाई (मरियम-उज़-ज़मानी) सहित राजपूत राजकुमारियों से शादी की. उसने राजपूत सरदारों के असंतोष को दूर करने, उनका विश्वास जीतने और उन्हें मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार बनाने के लिए अपने प्रशासन और सेना में उच्च पदों पर नियुक्त किया. अकबर की नीतियों के कारण कई राजपूत राज्यों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली, जिनमें आमेर, जैसलमेर, बीकानेर और जोधपुर राज्य शामिल थे.यहां यह उल्लेखनीय है कि शौर्य, पराक्रम, त्याग, वीरता और दृढ़ संकल्प के प्रतीक; मेवाड़ के शासक, महाराणा प्रताप सिंह सिसौदिया ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और मुगलों से उनका संघर्ष कई वर्षों तक चलता रहा और अकबर महाराणा प्रताप को अधीन करने में असफल रहा. अकबर के बाद जहाँगीर और जहाँगीर के बाद शाहजहाँ शासक बना. जहाँगीर और शाहजहाँ ने अकबर की राजपूत नीति को आगे बढ़ाया, जिसके कारण छिटपुट संघर्षों के बावजूद मुगलों और राजपूतों के बीच संबंध मधुर बने रहे.

औरंगजेब के अधीन चुनौतियाँ (1658-1707):

औरंगजेब मुगल वंश का छठा शासक था. औरंगजेब की विचारधारा कट्टर और रूढ़िवादी थी. उसकी नीतियों के कारण मुगलों और राजपूतों के संबंध तनावपूर्ण हो गए.

औरंगजेब की राजपूत क्षेत्रों में आक्रामक विस्तार की नीति और हिंदुओं पर जजिया कर को फिर से लागू करने और हिंदू मंदिरों के विनाश और धार्मिक प्रतिबंध लगाने से तनाव बढ़ गया. इस दौरान राजपूत राज्यों ने औरंगजेब की नीतियों का आक्रामक विरोध किया. मेवाड़ के राणा राज सिंह और मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह जैसे राजपूत शासकों ने औरंगजेब की नीतियों का विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप संघर्ष और विद्रोह हुए.

उत्तर मुगल काल (1707-1857):

मुगल साम्राज्य के पतन के साथ, राजपूत राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता पुनः प्राप्त कर ली. जयपुर, जोधपुर और उदयपुर के महाराजाओं जैसे राजपूत शासकों ने अपनी स्वतंत्रता का दावा करते हुए मुगलों के साथ कुछ हद तक राजनीतिक और राजनयिक संबंध बनाए रखे. राजपूतों ने अक्सर मुगल उत्तराधिकार विवादों में भूमिका निभाई, सिंहासन के विभिन्न दावेदारों के साथ सहयोग किया. हालाँकि, इस अवधि के दौरान मुगलों और राजपूतों दोनों की समग्र शक्ति और प्रभाव में गिरावट आई.


निष्कर्ष:

राजपूत-मुग़ल संबंध संघर्ष और प्रतिरोध से लेकर गठबंधन और एकीकरण तक विभिन्न चरणों से होकर विकसित हुए. राजपूत, जो शुरू में मुगल शासन के प्रति प्रतिरोधी थे, धीरे-धीरे साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गए. अंतर्विवाह, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और मुगल दरबार में राजपूत कुलीनों की भागीदारी ने स्थिरता और सहयोग को बढ़ावा दिया. हालाँकि, औरंगजेब के शासनकाल के दौरान तनाव और संघर्ष उभरे. अपने अंतिम दिनों में मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया और कई राजपूत राज्य स्वतंत्र हो गये.

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