Last Updated on 13/03/2023 by Sarvan Kumar
भारत में 6000 से अधिक हिंदू जातियां निवास करती हैं. हिंदू धर्म ग्रंथों में वर्णित वर्ण व्यवस्था के अनुसार इन जातियों को गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया है. इनमें से कई जातियों की वर्ण स्थिति बहुत स्पष्ट है, जबकि कई जातियाँ ऐसी भी हैं जिनकी वर्ण स्थिति एक जटिल मामला है. कायस्थ भारत में रहने वाला एक प्रमुख समुदाय है जो उत्तर भारत सहित भारत के कई प्रांतों में पाया जाता है. इनकी वर्ण स्थिति के संबंध में कई अवधारणाएँ हैं. यहां हम जानेंगे कि क्या कायस्थ शूद्र हैं, यानी कायस्थ शूद्र के बारे में.
क्या कायस्थ शूद्र हैं?
अगर हम जातियों के इतिहास का गहराई से अध्ययन करें तो पाएंगे कि भारत में ऐसी कई जातियां हैं जो पहले के समय में सामाजिक पदानुक्रम में निम्न क्रम में हुआ करती थीं लेकिन समय के साथ उन्होंने उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त की. वहीं, कई ऐसी जातियां भी हैं जो समय के साथ तालमेल नहीं बिठा पाईं और सामाजिक पदानुक्रम में नीचे चली गईं. सामाजिक स्थिति में उथल-पुथल एक सामान्य प्रक्रिया है जो पहले भी होती रही है और भविष्य में भी होती रहेगी. कायस्थ एक ऐसी जाति है जिसने भारतीय समाज में अपनी अलग पहचान बनाई है और शिक्षा, बुद्धि और आर्थिक संपन्नता के दम पर खुद को एक उच्च जाति के रूप में स्थापित किया है. कायस्थ समुदाय की वर्ण स्थिति के बारे में चार बातें कही जाती हैं. कई विशेषज्ञों का मानना है कि उनके आचार, विचार, व्यवहार और रीति-रिवाज ब्राह्मणों के समान हैं, जिससे पता चलता है कि इनकी उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है. वहीं, भारत के कई प्रांतों में इन्हें क्षत्रिय शासक वर्ग का भी माना जाता है. साथ ही कई पुस्तकों में लिखा है कि ये पहले शूद्र थे जिन्होंने बाद में उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त की. वहीं कई जानकारों का मानना है कि कायस्थ सिर्फ एक जाति नहीं बल्कि पांचवां वर्ण है. यह जाति ब्राह्मणों की चातुर्वर्ण व्यवस्था के ढाँचे में फिट नहीं बैठती और चातुर्वर्ण व्यवस्था से पूरी तरह बाहर है. इस लेख की विषय-वस्तु को समझने के लिए उपर्युक्त बातों को जानना आवश्यक था. अब हम लेख के मुख्य विषय पर आते हैं और कायस्थ शूद्र के बारे में पड़ताल करते हैं.
ब्रिटिश सिविल सेवक रॉबर्ट वेन रसेल (R. V. Russell) ने अपनी किताब ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ द सेंट्रल प्रोविंस ऑफ इंडिया, वॉल्यूम 3’ में निम्न बातों का उल्लेख किया है-
•कायस्थ जाति की उत्पत्ति को लेकर बहुत चर्चा हुई है. इस समुदाय के लोगों ने अपनी क्षमता, योग्यता और परिश्रम से सार्वजनिक सेवाओं में अच्छा स्थान प्राप्त किया है, जिसके कारण यह उच्च सामाजिक स्थिति में है. हालाँकि, सभी संकेत इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि हाल की अवधि में इस समुदाय ने अपनी सामाजिक स्थिति में बहुत वृद्धि हासिल की है, और अतीत में इसकी सामाजिक स्थिति अब की तुलना में निम्न थी.
•बंगाल के कायस्थों को कुछ हिंदू पवित्र पुस्तकों में क्षत्रियों के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन अधिकांश कायस्थ कबीले (clans) पवित्र जनेऊ नहीं पहनते हैं, और शूद्र के रूप में अपनी स्थिति स्वीकार करते हैं. लेकिन क्षत्रिय हों या शूद्र, वे हिंदू समाज के ऊपरी तबके से ताल्लुक रखते हैं.
•इसमें कोई संदेह नहीं है कि सौ साल पहले बंगाल और बिहार के कायस्थों को आमतौर पर शूद्रों के रूप में देखा जाता था. अपने समय के उत्कृष्ट पर्यवेक्षकों में से एक डॉ. बुकानन (Dr. Buchanan) ने कई बार उल्लेख किया है कि कायस्थ बिहार में प्रमुख जाति हैं जिन्हें सभी शुद्ध शूद्रों के रूप में देखते हैं. गोरखपुर के पंडितों का कहना है कि कायस्थ केवल शूद्र हैं, लेकिन अपने प्रभाव के कारण जेंट्री (अशरफ) में शामिल हैं.
न्यायालयों की राय में कायस्थों का वर्ण
ब्रिटिश शासन के दौरान भी कायस्थों का वर्ण सम्बन्धी मामला भारतीय समाज में चर्चा का विषय बना जब अंग्रेजी शासन ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अदालतों की स्थापना की. अनेक मामलों में प्रसंगवश कायस्थों के वर्ण के बारे में न्यायिक निर्णय हुए. स्थिति ने उस समय गंभीर रूप लिया जब एक उच्च न्यायालय ने एक मामले में कायस्थों को शद्र वर्ण का बताया. उदाहरण के तौर पर 1916 के संपत्ति विवाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि बंगाली कायस्थ शूद्र थे. हालाँकि, इसके विपरीत, इलाहाबाद और पटना उच्च न्यायालयों की राय में, कायस्थ शूद्र नहीं बल्कि द्विज हैं.
क्या कायस्थ शूद्र हैं? निष्कर्ष
मनुस्मृति आदि में कायस्थ जाति का कोई उल्लेख नहीं है. धर्मशास्त्रियों और विशेषज्ञों के अनुसार कायस्थ जाति की उत्पत्ति 6वीं शताब्दी के बाद ‘करण’ नामक जाति के रूप में हुई, जो मूल रूप से ब्राह्मणों में से ही अलग एक समुदाय का था. ‘करण’ भूराजस्व आदि के रेकार्ड – कीपर का काम करते थे. लेकिन उस समय लेखन को हेय दृष्टि से देखा जाता था. ब्राह्मणों को वेदों के ज्ञान पर अपना एकाधिकार खोने का डर था. इस कारण लेखक ब्राह्मणों को विद्वान ब्राह्मणों द्वारा प्रताड़ित होना पड़ा. वे उन ‘लेखकों’ को नीच, शूद्र आदि शब्दों से संबोधित करते थे. संभवत यही लेखक ब्राह्मण आगे चलकर कायस्थ के रूप में विकसित हुए और कालांतर में इनमें क्षत्रिय प्रवृत्ति भी विकसित हुई.