
Last Updated on 06/08/2020 by Sarvan Kumar
रामजन्मभूमि यानी भगवान राम की जन्म धरती, क्या इस पर कोई विवाद हो सकता है? भारत, जहां हिन्दू परम्परा में विश्वास करने वाले करोड़ों लोग रहते हैं। जहां भगवान राम, भगवान कृष्ण और कई देवी देवताओं का मानव रूप में जन्म हुआ है। वहीं इस धरती पर राम जन्मभूमि पर सवाल खड़ा किया जाता रहा है। वर्षों से लटके इस मुद्दे पर एक ऐतिहासिक छण तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के उस जमीन को राम जन्मभूमि घोषित कर दिया जहां कभी बाबरी मस्जिद था। कोर्ट ने माना कि विवादित बाबरी मस्जिद को मंदिर तोड़ कर बनाया गया था। साथ ही कोर्ट ने ये आदेश जारी किया कि वहां राम मंदिर का निर्माण किया जाए। 9 नवंबर 2019 को जब कोर्ट का फैसला आया तब नरेन्द्र मोदी की सरकार तैयार थी। कोई भी अप्रिय घटना ना हो इसके लिए हर संभव प्रयास किया गया था। प्रधानमंत्री का यह प्रयास सफल भी हुआ और देश में चारों तरफ शांति रही कोई भी अप्रिय घटना नहीं हुई और किसी की भी जान नही गई।
हमेशा ऐसा नही था इसके पहले जब भी हिन्दूओं ने राम जन्मभूमि के लिए संघर्ष किया उन्हे अपनी जान तक गंवानी पड़ी। रामजन्मभूमि का इतिहास काफी रक्तरंजित रहा है। लाखों हिन्दूओं ने अपनी जान गंवाई है। आइये पलटतें है इतिहास के उन पन्नों को जहां अयोध्या राम जन्मभूमि की खूनी दास्तान लिखी गई है।
चार पुजारियों का सर काटा गया
जब बाबर दिल्ली के सिंहासन पर बैठा उस समय राम जन्मभूमि एक सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी।महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान श्यामनन्द के शरण आ गये। महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली। कुछ दिन जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे -धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ।
जलालशाह बाबर का विश्वासपात् बनकर उसे मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने पर बाध्य किया। बाबर यह काम अपने वजीर मीरबांकी को सुपुर्द कर दिल्ली चला गया।
बाबा श्यामनन्द अपने साधक शिष्यों की करतूतों पर पछताये हुए प्रतिमा को सरयू जी में प्रवाह कर उतराखण्ड की ओर चले गये। मंदिर के चार पुजारियों ने फैसला किया वे जान दे देंगे पर मंदिर के भीतर किसी को प्रवेश नहीं करने देंगे। जलालशाह की आज्ञनुसार चारों पुजारियों का सर काटा लिया गया और तोपों की मार से मंदिर गिरा दिया गया।
इस लेख का अगला भाग है :दस हजार सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने अपनी जान गंवाई।

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