
Last Updated on 29/06/2023 by Sarvan Kumar
महादेव के वंशजो, महिधर की संतान ।
धन्य लखेरो आपने, रखी अटूटी आन।।
शिव गौरी के ब्याह से, शुरू हुआ यह काम।
चूड़ी बनती लाख की, तब से अब अविराम ||
रंग चढ़ा सिंगार का, प्रिय ने देखी राह।
रूप सँवारा आपने, वाह लखेरा वाह ।।
रहे सदा मन में बनी, इक दूजे की साख ।
अरे लाख के शिल्पियों, घड़ दो ऐसी लाख ।।
रंग बिरंगी चूड़िया, मैंने देखी आज ।
अरे लखारा आप तो, हो बड़े रंगसाज ।।
कवि राम लखारा ने इन पंक्तियों से लखेरा समाज का सारा इतिहास बता दिया है.
लखेरा गावं – गांव, घर- घर घूमकर चुड़ी का व्यवसाय कर जीवनयापन करते आए हैं. इनके पूर्वज जंगलों में रहते थे, जिनका मुख्य पेशा बबूल, पीपल, के पेड़ो से लाख एकत्रित कर सेठ साहुकारो को बेचना था.
कालान्तर में लाख को साफ करना तथा दक्ष हस्तकला से चुड़ियाँ बनाकर बेचना आरम्भ कर दिया इसी से ‘लखारो” नाम की पहचान मिली. प्राचीन समय में कार्य के अनुसार ही जातियों के नाम पड़े, लखेरा जाति का सदस्यों से परम्परागत कार्य हाथ से लाख की चूड़ियाँ बनाता तथा स्त्री-पुरुष दोनो कन्धे पर झोली तथा सिर पर टोकरी रखकर नगर-नगर डगर डगर, घूम घूम कर बेचते और अपना भरण पोषण करते। महीनों अपने गांव से दूर रहते केवल तीज त्यौहारों पर ही घर आते थे.
धार्मिक प्रवृति के इस समाज का रामायण महाभारत उल्लेख मिलता है। भजनेरी (बूंदी) की परम पावनी “शिव चैना कुशला माता तथा भक्त सेऊ समन’ इनके सर्वमान्य आराध्य है। इस जाति की पौराणिकता “मूथा नैणसी री ख्यात तथा मारवाड़ रापरगना री विगत” मे देखने को मिलती है। जहां लिखा है-लाख लखारा नीपज.
शादी होने के तुरन्त बाद दुल्हन को लखेरा के यहां ले जाकर या पर्दा प्रथा हो तो लखेरा को अपने यहां आमंत्रित कर उसके हाथों से लाख की चूड़ी पहनकर उससे अमर सुहाग का आशीवाद लेना जो “लाखीणी करना कहलाता है। यह परिपाटी सनातन से चली आ रही है। इस प्रकार सौहार्द शृंगार व सुहाग की प्रतीक बनी चुड़ियाँ निश्चित ही लखारा समाज की ओर से भारतीय नारी को आदिकाल के अनुपम भेंट है।
हिन्दू समाज में शादि विवाह के अवसर पर लखेरा के यहां से कांकण डोरा (विशेष लाख की रिंग “लखलोलिया” जरूर होती है।) वर वधु के हाथ पांव के बांधने की विशेष रस्म होती है। जिसे सुहाग का सुगन माना जाता है। लखेरा भारत में पाई जाने वाली एक जाति जो पारंपरिक रूप से लाख (लाह) के कलात्मक आभूषण, चूड़ियां, कंगन और खिलौना बनाने और बेचने का कार्य करते हैं. इन्हें लखारा, लक्षकर,लक्षकार, लखपति, लहेरी आदि नामों से भी जाना जाता है. महाराष्ट्र में इन्हें लखेरी कहा जाता है.

लाह के सामान बनाना इस जाति का अंतर्निहित विरासत रहा है. इस जाति के लोग प्राचीन काल से लाह के बने चूड़े, पाटले और कलात्मक सामान गांव-गांव में जाकर बेच कर अपना जीवन-यापन करते आए हैं. इस समुदाय के कुछ सदस्य अब दुकानदार हैं. साथ ही यह विभिन्न क्षेत्रों और आधुनिक नौकरी-पेशा में भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। प्राचीन काल से ही लखेरा जाति का समाज में महत्वपूर्ण स्थान रहा है. हिंदू संस्कृति में चूड़ा अमर सुहाग का प्रतीक रहा है. वर्त्तमान में भी देश के सभी हिस्सों मे महिलाएं चूड़ियां पहनती हैं. इस समुदाय के अधिकांश लोग यह दावा करते हैं कि उनके पूर्वज कायस्थ और राजपूत थे. इस बात को समर्थन करने के लिए इस जाति ने खुद को राजपूतों की तरह सूर्यवंशी और सोमवंशी उप जातियों में विभाजित कर लिया है. आइए जानते हैं लखेरा समाज का इतिहास, लखेरा शब्द की उत्पत्ति कैैैसे हुई?
लखेरा किस कैटेगरी में आते हैं?
इस जाति को राजस्थान, दिल्ली, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में शामिल किया गया है.
लखेरा जाति की जनसंख्या , कहां पाए जाते हैं?
कहा जाता है कि इस जाति की उत्पत्ति मूल रूप से राजस्थान में हुई, जहां से वह देश के विभिन्न भागों में फैल गए. यह मुख्य रूप से राजस्थान, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र बिहार आदि राज्यों में पाए जाते हैं.
उत्तर प्रदेश में यह जाति मुख्य रूप से राज्य के दक्षिण और पूर्व में पाया जाता है. जालौन, हमीरपुर, ललितपुर और झांसी में इनकी अच्छी खासी आबादी है. मध्य प्रदेश के जबलपुर, छिंदवाड़ा और बैतूल जिलों में इनकी बहुतायत आबादी है.

लखेरा जाति किस धर्म को मानते हैं?
इस जाति के लोग सनातन हिंदू धर्म के अनुयाई हैं. इस समाज की कुलदेवी मां चैना माता-कुशला माता हैं. रूप जी महाराज और बालाजी में इस समुदाय के लोगों की गहरी आस्था है. यह तुलजापुर की भवानी देवी की भी पूजा करते हैं. बता दें कि 51 शक्तिपीठों में से एक माता भवानी को समर्पित तुलजा भवानी मंदिर महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले के तुलजापुर में स्थित है.
लखेरा की उपजाति
लखेरा समुदाय में कई कुलों का समावेश है, जिनमें से प्रमुख हैं- हतदिया (गहलोत), गढ़वाली (भारद्वाज), बागरी (राठौर), नागोरिया, परिहार, भाटी, नैनवाया, सोलंकी, तंवर, पंवार, कथूनिया और अतरिया.
लखेरा जाति के सरनेम
महाराष्ट्र में इनके प्रमुख उपनाम हैं-बगाडे, भाटे, चव्हाण, हटाडे, नागरे, पडियार, रतवाड़ और सालुंके.
लखेरा शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
लक्ष या लाक्षा संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ होता है-लाख. लखेरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “लाक्षाकार, लक्षकार या लक्षकुरु” से हुई है, जिसका अर्थ है- “लाख या लाह का काम करने वाला”.
लखेरा जाति का इतिहास
इस जाति की उत्पत्ति के बारे में अनेक मान्यताएं हैं, जिसमें से कुछ प्रचलित मान्यताओं का उल्लेख हम नीचे कर रहे हैं. R.V. Russel ने अपनी पुस्तक ‘The Tribes and Castes of the Central Provinces of India’ में इस जाति की उत्पत्ति के बारे में निम्न बातों का उल्लेख किया है-
पहली मान्यता:
त्रेता युग में जब भगवान शिव का विवाह माता पार्वती से हुआ तो माता ने भगवान शंकर से कहा कि-“मेरे हाथ खाली हैं, सुहाग का प्रतीक लाख का बना चूड़ा हमारे हाथ में पहना दो”.लखेरा जाति मूल रूप से राजपूत (क्षत्रिय) हैं, जिन्होंने भगवान शिव के आदेश से हथियारों का त्याग किया और माता पार्वती के लिए लाख का काम शुरू किया.
दूसरी मान्यता:
दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार, इस जाति की उत्पत्ति, भगवान शिव के साथ विवाह से पूर्व, माता पार्वती के मेल से हुई है. इस जाति को भगवान शिव ने माता पार्वती के लिए चूड़ियां बनाने के लिए उत्पन्न किया था. इसीलिए इन्हें देवबंसी भी कहा जाता है.
तीसरी मान्यता:
एक अन्य मान्यता के अनुसार, भगवान कृष्ण ने इन्हें गोपियों और ग्वालिनों के लिए चूड़ियां बनाने के लिए उत्पन्न किया था. यह जाति कचेरा और पटवा समुदाय से निकटता से जुड़ा हुआ है. कुछ स्थानों पर इस जाति की तुलना पटवा समुदाय से की जाती है. मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में पटवा और लखेरा के बीच ज्यादा अंतर नहीं माना जाता. Census Report of North-Western provinces (1891) में उल्लेख किया गया है कि-“इस समुदाय के लोगों का मानना है कि पटवा की तरह यह जाति भी मूल रूप से कायस्थ थे”.
चौथी मान्यता:
एक अन्य मान्यता के अनुसार, यह जाति मूल रूप से यदुवंशी राजपूत थे, जिन्होंने महाभारत काल में पांडवों को जलाकर मारने के लिए लाक्षागृह बनाने में कौरवों की मदद की थी. इस आचरण के लिए उन्हें पदच्युत और प्रतिष्ठाहीन होकर हमेशा के लिए लाख या कांच का काम करने के लिए मजबूर किया गया.
लखेरा जाति के प्रमुख व्यक्ति
अवनी लखेरा
अवनी लखेरा (जन्म 8 नवंबर 2001) एक पैरा राइफल शूटर हैं. टोक्यो पैरालंपिक में अवनी ने इतिहास रचते हुए देश को पहला गोल्ड मेडल दिलाया था. यह भारत की तरफ से पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वालीं पहली महिला खिलाड़ी हैं.

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