Sarvan Kumar 15/09/2021
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Last Updated on 28/06/2023 by Sarvan Kumar

माली हिंदुओं में पाई जाने वाली एक व्यवसायिक जाति है. यह पारंपरिक रूप से बागवानी, फूल उगाने तथा कृषि का कार्य करते हैं. माली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “माला” से हुई है. फूल उगाने के अपने व्यवसाय के कारण इन्हें “फूलमाली” भी कहा जाता है. माली जाति के गौरवशाली इतिहास को इस बात से समझा जा सकता है कि इन्हें ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ बताया गया है. काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की पहली पूजा का अधिकार फूलमाली को है. आइए जाानते हैं माली समाज का इतिहास, माली समाज की उत्पत्ति कैसे हुई?

माली जाति किस कैटेगरी में आते हैं? (Mali Caste Category )

देश के अधिकांश राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में माली जाति को पिछड़ा वर्ग (Other Backward Class) के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है.

माली जाति की जनसंख्या, कहां पाए जाते हैं?

माली मुख्य रूप से पूरे उत्तर भारत, पूर्वी भारत, महाराष्ट्र के साथ-साथ नेपाल के तराई क्षेत्र में पाए जाते हैं. राजस्थान में माली समाज की 10% आबादी है. फूल माली समाज सबसे ज्यादा क्रमशः राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं. महाराष्ट्र में माली मुख्य रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र के 5 जिलों तथा विदर्भ क्षेत्र के 1 जिला में पाए जाते हैं.ये परंपरागत रूप से यह फल, फूल और सब्जियां उगा कर अपना जीवन यापन करते हैं. खेती के आधार पर इनकी अलग-अलग उपजातियां हैं. जैसे फूलों को उड़ाने वाले को ‘फूल माली”, जीरा की खेती करने वाले को “जीरा माली”, तथा हल्दी की खेती करने वालों को “हल्दी माली” कहा जाता है.

माली समाज की उत्पत्ति कैैैसे हुुई?

किसी भी जाति के इतिहास और उत्पत्ति के बारे में प्रमाणिक दावा करना कठिन होता है. फिर भी पौराणिक कथाओं, पांडुलिपियों, दंत कथाओं, विभिन्न ग्रंथों, ताम्र पत्रों और शिलालेखों के आधार पर माली समाज की उत्पत्ति, इतिहास और क्रमागत विकास के बारे में कई मत और मान्यताएं हैं.

पहली मान्यता:

पौराणिक कथा के अनुसार, माली भगवान शिव और माता पार्वती के मानस पुत्र हैं. ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ के समय माता पार्वती ने भगवान शिव से एक सुंदर बाग बनाने की जिद कर ली. तब भगवान शंकर ने अनंत चौदस के दिन अपने कान के मैल से एक पुरुष पुतला बनाकर उसमें प्राण डाल दिए. यही पुरुष माली समाज का आदि पुरुष मनंदा कहलाया. इसी तरह से मां पार्वती ने डाभ के पुतले में प्राण फूंक कर एक सुंदर कन्या को उत्पन्न किया जो आदि कन्या सेजा कहलायी. तत्पश्चात इन दोनों को सोने और चांदी से निर्मित औजार, कुदाल आदि देकर एक सुंदर बाग के निर्माण करने का कार्य सौंपा गया. मनंदा और सेजा ने दिन-रात परिश्रम कर एक निश्चित समय सीमा के अंदर एक अत्यंत ही सुंदर बाग का निर्माण किया. यह बाग महादेव और माता पार्वती के कल्पना से भी सुंदर था. भगवान शिव और माता पार्वती इस सुंदर बाग को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए. महादेव ने प्रसन्न होकर कहा आज से तुम्हें माली के रूप में जाना जाएगा. इस तरह से मनंदा और सेजा का विवाह करा कर के उन्हें पृथ्वी लोक में अपना काम संभालने के लिए कहा गया. कालांतर में उनके एक पुत्री और 11 पुत्र हुए जो आगे चलकर माली जाति के 12 उप जातियों में विभक्त हो गए.

दूसरी मान्यता

माली समाज की उत्पत्ति के बारे में दूसरी मान्यता यह है कि एक बार माता पार्वती बगीचे में फूल तोड़ने गई. फूल तोड़ने के समय उनके हाथ में एक कांटा लग गया और माता का खून निकल आया. माता पार्वती के उसी खून से माली जाति की उत्पत्ति हुई.

माली समाज की उपजातियां

माली समाज में कुल 12 उपजातियां हैं-फूल माली, हल्दी माली, काछी माली, जीरे माली, मेवाड़ा माली, कजोरिया माली, वन माली, रामी माली, सैनी माली, ढीमर माली और भादरिया माली.

क्या माली क्षत्रिय हैं?

ऐसी मान्यता है कि माली जाति मूल रूप से क्षत्रिय है. भगवान परशुराम द्वारा सभी क्षत्रियों के नष्ट किए जाने से बचने के लिए इनके पूर्वजों ने क्षत्रिय कार्यों को त्याग कर अलग-अलग पेशा और व्यवसाय को अपना लिया.

माली समाज का इतिहास

माली राजपूत/राजपूत माली/ सैनिक क्षत्रीय

ऐसी मान्यता है कि माली समाज में एक वर्ग राजपूतों की उपश्रेणियों का भी है. राजपूत माली राजस्थान के मारवाड़ का एक विशिष्ट जातीय समूह है. 1192 ईस्वी में तराइन के दूसरे युद्ध में मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर दिया. पृथ्वीराज चौहान के पतन के बाद मोहम्मद गोरी दिल्ली और अजमेर पर कब्जा करके और भी शक्तिशाली हो गया. कहा जाता है कि इस युद्ध में भारी संख्या में राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए और जो बचे थे उन्हें बंदी बना लिया गया. वे राजपूत सैनिक जिन्होंने इस्लाम धर्म को स्वीकार नहीं किया उन्हें मार दिया गया, जबकि कुछ राजपूत सैनिकों ने मरने के डर से इस्लाम धर्म अपना लिया. जबकि कुछ ऐसे राजपूत सैनिक थे जो कैद से छोड़े जाने के बाद या फिर जान बचाकर भागने में कामयाब रहने के बाद खेती और बागवानी को अपना पेशा बना लिया. बाद में यही माली (राजपूत) के रूप में सामने आए.

माली समाज के प्रमुख व्यक्ति

ज्योतिराव फूले

उन्नीसवीं सदी के महान समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता, जाति प्रथा विरोधी, विचारक, और लेखक ज्योतिराव गोविंदराव फुले माली समुदाय से थे. फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था. उन्होंने छुआछूत और जाति व्यवस्था के उन्मूलन तथा महिला मुक्ति और महिला सशक्तिकरण सहित कई क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया. ज्योति राव फूले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले भारत में महिलाओं, निचली जातियों और दलितों के लिए शिक्षा के अग्रदूत थे. फुले दंपति भारत के लड़कियों के लिए विद्यालय खोलने वाले पहले भारतीयों में से थे. समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखकर फूले व्याकुल हो जाते थे. उन्होंने बाल विवाह का विरोध और विधवा विवाह का समर्थन किया. उन्होंने गर्भवती हिंदू ब्राह्मण विधवाओं के लिए एक घर की भी स्थापना की, जिन्हें उनके परिवार वालों ने घर से निकाल दिया था. ज्योतिराव फुले ने लेने 1873 में निचली
जाति के लोगों को समान अधिकार दिलाने और उत्पीड़ित वर्गों के उत्थान के लिए सत्यशोधक समाज का गठन किया था.

सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले एक महान समाज सुधारक, शिक्षाविद और कवित्री थीं. सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षिका माना जाता है. इनका जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था. अपने पति ज्योति राव फूले के साथ मिलकर उन्होंने भारत में महिलाओं के अधिकारों को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सावित्रीबाई फुले को भारतीय नारीवाद की जननी कहा जाता है. उन्होंने जाति और लिंग के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव और अनुचित व्यवहार के उन्मूलन के लिए काम किया.

नारायण लोखंडे

नारायण मेघाजी लोखंडे जोतिराव फुले के प्रमुख सहयोगी थे. उनका जन्म पुणे जिले के एक माली परिवार में हुआ था. लोखंडे भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के जनक थे. उन्हें 19वीं शताब्दी में कपड़ा मिल में काम करने वाले मजदूरों की परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए याद किया जाता है. ब्रिटिश राज में कपड़ा और कई तरह मिलो मैं भारी संख्या में भारतीय मजदूर काम करते थे. उन्हें हफ्ते के सातों दिन काम करना पड़ता था और उनके लिए छुट्टी की कोई व्यवस्था नहीं थी. मिल मजदूरों को एक दिन की छुट्टी के लिए मजदूर नेता नारायण लोखंडे ने आंदोलन शुरू किया. लोखंडे के 7 साल के लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेज शासन में 10 जून 1890 को भारतीयों के लिए रविवार के दिन को साप्ताहिक अवकाश के रूप में मान्यता दे दी.

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