
Last Updated on 03/02/2022 by Sarvan Kumar
पूरन सिंह कोली (Pooran Koree) भारत के इतिहास के वह गुमनाम योद्धा हैं जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अपने अंतिम समय तक यह अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते मातृभूमि की रक्षा के लिए कुर्बान हो गए. लेकिन मुख्यधारा के इतिहासकारों द्वारा इनके जीवन के बारे में ज्यादा नहीं लिखे जाने के कारण लोग इतिहास के इस अल्पज्ञात अध्याय के बारे में ज्यादा नहीं जानते. आइए जानते हैं पूरन सिंह कोली के साहस, वीरता और बलिदान की अनसुनी कहानी.
पूरन सिंह कोली का जन्म कब और कहां हुआ था?
पूरन सिंह कोली 1857 की क्रांति की नायिका वीरांगना झलकारी बाई के पति थे. यह झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में सैनिक थे और तोपची (canon operator) के रूप में काम करते थे. इनका जन्म झांसी रियासत के नयापुरा गांव में एक साधारण कोली (कोरी) परिवार में हुआ था. पूरन सिंह कोली एक आकर्षक और बहादुर युवक थे. झांसी की सेना में पूरन सिंह कोली का बड़ा सम्मान था, सभी उनकी साहस, वीरता और पराक्रम का लोहा मानते थे.
झलकारी बाई को प्रशिक्षण
अंग्रेजों ने झांसी को चारों तरफ से घेर लिया तो रानी लक्ष्मीबाई को वहां से सुरक्षित बाहर निकालने में पूरन सिंह कोली और उनकी पत्नी झलकारी बाई का बड़ा योगदान था. रानी लक्ष्मीबाई ने खुद झलकारी बाई को युद्ध कला में प्रशिक्षित किया था. लेकिन झलकारी बाई को एक उत्कृष्ट सैनिक के रूप में विकसित करने में उनके पति पूरन का महत्वपूर्ण योगदान था. किवदंती है कि पूरन कोरी ने झलकारी बाई को तलवारबाजी, धनुर्विद्या, कुश्ती और निशानेबाजी का प्रशिक्षण देकर युद्ध कौशल को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पूरन कोली खुद युद्ध अभ्यास के पश्चात झलकारी बाई को भी अभ्यास करवाया करते थे. पति द्वारा पूरी तरह से प्रशिक्षित होने के बाद झलकारी बाई एक ऐसी दुर्जेय योद्धा बन गई थी, जिससे रणभूमि में शत्रु खौफ खाते थे. इसी का परिणाम था कि धीरे-धीरे झलकारी बाई रानी लक्ष्मी बाई की विश्वासपात्र सलाहकार होने के साथ-साथ, रानी लक्ष्मीबाई की झांसी सेना के महिला विंग दुर्गा दल की सेनापति भी बन गई. वह रानी के लिए युद्ध की रणनीति भी बनाया करती थी.
झांसी की रक्षा में योगदान
अंग्रेज किसी तरह से झांसी को हड़पना चाहते थे, जिसके कारण झांसी में तनाव का माहौल था. सीमित संसाधन और कम सैनिकों के के बावजूद भी रानी ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने के बजाय लड़ने का फैसला किया, क्योंकि झलकारी बाई और पूरन सिंह कोली जैैैसे वीर उनके साथ थे. सर (Sir Hugh Rose) के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना झांसी के किले को चारों तरफ से घेर लिया. 6 जून 1857 को अंग्रेजी फौज और झांसी की सेना के बीच एक भीषण युद्ध हुआ. चारों तरफ से गोलीबारी हो रही थी. तात्या टोपे के तरफ से मदद नहीं मिलने के कारण रानी भी किले में फंस गई थी. हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे थे. किसी भी वक्त कुछ भी हो सकता था. इसी बीच, रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हा जू अंग्रेजों से मिल गया और किले का एक संरक्षित द्वार द्वार अंग्रेजों के लिए खोल दिया. अब झांसी का पतन निश्चित था और रानी का किले से सुरक्षित बाहर निकलना असंभव प्रतीत हो रहा था. ऐसे में रानी को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए झलकारी बाई ने अपनी जान की परवाह न करते हुए, लक्ष्मीबाई का वेश बनाकर अंग्रेजों से लड़ने लगी. इससे लक्ष्मीबाई को किले से बाहर निकलने का मौका मिल गया. पूरन सिंह कोली भी कहां पीछे हटने वाले थे. उन्होंने किले के उन्नाव दरवाजे पर कोरी जाति के सैनिकों के साथ मोर्चा संभाल लिया. अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुए वह अंग्रेजों के साथ तब तक लड़ते रहे जब तक वह वीरगति को प्राप्त नहीं हो गए. भले ही मुख्यधारा के इतिहासकारों ने पूरन सिंह कोली को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह हकदार थे. लेकिन मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान देकर कोली बुंदेलखंड की लोक कथाओं और लोकगीतों में हमेशा के लिए अमर हो गए.
