Last Updated on 15/11/2021 by Sarvan Kumar
बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन का कारण: बिहार राज्य की प्रति व्यक्ति आय अन्य राज्यों की तुलना में काफी निम्न है. स्थिर कीमत वर्ष 2011-12 के आधार पर वर्ष 2019-20 में प्रति व्यक्ति आय 50,735 है जबकि अन्य राज्य जैसे झारखंड की प्रति व्यक्ति आय ₹87,120, मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय ₹1,13,079, उड़ीसा की प्रति व्यक्ति आय ₹1,19,075 है जबकि भारत की प्रति व्यक्ति आय ₹1,34,432 है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि निम्न प्रति व्यक्ति आय के मामले में बिहार अपने पड़ोसी राज्यों की तुलना में काफी नीचे है और भारत की तुलना में उसकी प्रति व्यक्ति आय लगभग एक तिहाई है।
ऊपर के आंकड़े NSDP Per Capita (Nominal)
(2019–20) हैं। Source Wikipedia
बिहार में भू- राजस्व व्यवस्था
बिहार में अत्यधिक गरीबी का कारण भू राजस्व व्यवस्था भी है जिसके कारण गरीब, और गरीब होते चले गए और वह सूदखोरों के चंगुल में फंस गए। बहुत सारे बिहारी पलायन को मजबूर हो गए और देश के महानगरों के साथ-साथ फीजी, मॉरीशस जैसे देशों में चले गए और वहां निम्न स्तर के काम में लग गए।
यह सारे आंकड़े ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम किताब’ से ली गई है जिसके लेखक हैं प्रसन्न कुमार चौधरी -श्रीकांत। यह बहुत अच्छी किताब है और हम बिहारियों को इस किताब को पूरी तरह से पढ़ना चाहिए इसमें काफी अच्छी- अच्छी जानकारियां दी गई हैं। आप भी इस किताब को अमेजॉन से मंगा सकते हैं इसका लिंक नीचे है। Buy at Amazon
बिहार (साथ में उड़ीसा) में भू- राजस्व व्यवस्था(19 वीं सदी के शुरुआत में)
सबसे ऊपर: ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार
19वीं सदी के शुरुआत में भू राजस्व ब्रिटिश सरकार के आमदनी का प्रमुख स्रोत था।
दूसरे नंबर पर : जमींदार
छोटे से लेकर बड़े कई तरह के जमींदार थे सबसे बड़े जमींदार दरभंगा महाराज थे। उनकी रियासत 5 जिलों में फैली थी और यह लगभग 2400 सौ वर्गमील थी। दरभंगा रियासत की कमाई लगभग एक करोड़ थी। सबसे छोटी जमींदारी पटना के भरतपुरा गांव में थी जिनके पास केवल डेढ़ एकड़ जमीन थी उनकी आमदनी चार आने थी। 20000 एकड़ से अधिक वाले जमींदारों की संख्या सिर्फ 474 थी, 90% जमींदारों की भूमि 500 एकड़ से कम थी। बिहार में जमींदारी के इस प्रथा को स्थायी बंदोबस्त कहा जाता था। इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों को भूमि का स्थायी मालिक बना दिया गया। भूमि पर उनका अधिकार पैतृक एवं हस्तांतरणीय था। जब तक वो एक निश्चित लगान सरकार को देते रहें तब तक उनको भूमि से पृथक् नहीं किया जा सकता था। जमींदारों को किसानों से वसूल किये गए भू-राजस्व की कुल रकम का 10/11 भाग कंपनी को देना था तथा 1/11 भाग स्वयं रखना था।

तीसरे नंबर पर पट्टेदार: जमींदार इन्हें ठेके या पट्टे पर जमीन देते थे।
चौथे नंबर पर रैयत: पट्टेदार जिन लोगों को खेती करने के लिए जमीन देते थे उन्हे रैयत कहा जाता था। रैयत को लगान देना पड़ता था, लगान की राशि तय होती थी, उसे बढाया नही जाता था।
पांचवेें नंबर पर कायमी रैयत: रैयत खुद खेती ना कर दूसरोंं को खेती करनेेे के लिए जमीन दे देते थे कायमी रैयत जाता था। इन्हें भी लगान देना पड़ता था।
छठे नंबर पर पर: दर रैयत या बटाईदार: यह गांव के गरीब कारीगर और सेवक समुदाय थे। यह जमींदारों के जीरात और धनी रैयतों के जमीन को जोतते थे। इसके बदले खेती के पैदावार का बड़ा हिस्सा उन्हें देते थे। ये पूरी तरह खेती पर निर्भर थे.
सातवें नंबर पर खेत मजदूर: इनमें से ज्यादातर तो बंधुआ मजदूर थे।खेतों में काम करने वाले मजदूर को मजदूरी दी जाती थी। इनकी हालत बहुत दयनीय थी और मुश्किल से यह अपना गुजारा चला पातेे थे।
जमीन एक नैसर्गिक संपदा है और इस पर सभी का अधिकार होना चाहिए। इसको खरीदा या बेचा नहीं जा सकता,पर कुछ लोगों ने शक्ति के बल पर जमीन हथिया लिया और दूसरे लोगों को गरीबी के गर्त में धकेल दिया।
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