
Last Updated on 27/11/2022 by Sarvan Kumar
बिहार में जाति आधारित हिंसा (Caste based violence) का एक लंबा इतिहास रहा है. यह जाति संघर्ष मुख्य रूप से गरीब और भूमिहीन निचली जातियों (Lower Castes) तथा अगड़ी जातियों (Forward Castes) के बीच होता आया है, जिनका परंपरागत रूप से भूमि के विशाल हिस्से पर नियंत्रण रहा है. लेकिन ऐसे कई मौके भी आए जब उच्च जातियों और मध्यम किसान जातियों के बीच भयंकर अंतर्जातीय संघर्ष हुए. आइए इसी क्रम में जानते हैं भूमिहार और यादव के बीच हिंसा के बारे में.
भूमिहार और यादव के बीच हिंसा
बिहार में 3 मध्यम कृषक जातियों को अत्यंत ही प्रभावशाली माना जाता है- कुर्मी, कुशवाहा और यादव. यादवों की बात करें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यादव भूमिहार जितने समृद्ध हैं, लेकिन उनमें से कई भूमिहारों से बेहतर स्थिति में हैं. शैक्षिक रूप से भी यादवों ने महत्वपूर्ण प्रगति दर्ज की है. सरकारी सेवाओं में यादवों का अच्छा प्रतिनिधित्व है. और सबसे खास बात यह है कि बिहार में यादवों का राजनीतिक दबदबा भूमिहारों से ज्यादा है. यहां हम भूमिहारों और यादवों के बीच जातीय संघर्ष को दो बहुत महत्वपूर्ण घटनाओं के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे.
जनेऊ आन्दोलन- लाखोचक की घटना
संस्कृतिकरण का तात्पर्य पदानुक्रमित जाति व्यवस्था में बदलाव से है. संस्कृतिकरण उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके द्वारा जातियाँ जो जाति पदानुक्रम में निम्न स्थान पर हैं, उच्च जातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक विश्वासों, मूल्यों, आदतों, अनुष्ठानों, प्रथाओं और रीति-रिवाजों को अपनाकर और अनुकरण करके ‘उर्ध्व’ गतिशीलता’ प्राप्त करने अर्थात अपनी स्थिति को ऊपर उठाने का प्रयास करती हैं. जनेऊ आन्दोलन भी संस्कृतिकरण एक अच्छा उदाहरण है. बीसवीं शताब्दी के शुरुआत में बिहार के कई इलाकों में यादव, कुर्मी और कुशवाहा जाति के लोगों ने जनेऊ धारण करना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे बिहार के कई जिलों में यादव जाति के लोगों ने जनेऊ पहनना शुरू कर दिया. राजपूत, ब्राह्मण और भूमिहार (बाभन) जमींदारों ने इसका विरोध किया. यादवों और सवर्णों के बीच हिंसक झड़पें होने लगीं. यह बात 26 मई 1925 की है जब तत्कालीन मुंगेर जिले के लखीसराय थानान्तर्गत एक छोटे से गाँव लाखोचक में जनेऊ धारण करने के लिए आसपास के कई गांवों से यादव बड़ी संख्या में इकट्ठा हुए थे. प्रसिद्ध नारायण सिंह इलाके के बड़े जमींदार थे और जाति से भूमिहार थे. वह इसके खिलाफ थे. उनके नेतृत्व ने लाठी, फरसा, गंडासा, तलवार और भाले से लैस करीब हजारों भूमिहारों ने यादवों पर हमला कर दिया. पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा. पुलिस ने इस दिन 118 राउंड फायरिंग की. बताया जाता है कि इस घटना में 8 से 80 लोगों की मौत हुई थी. मृतकों में भूमिहार और यादव दोनों जातियों के लोग शामिल थे. लखोचक की इस घटना को बिहार के इतिहास में पहली जातिगत हिंसा या जाति के आधार पर हुए बड़े हमले के रूप में आज भी याद किया जाता है.
पारस बिगहा (पारसबीघा) और दोहिया कांड 1979-80
बिहार में जमींदारी उन्मूलन और कम्युनिस्ट उभार ने उच्च और पिछड़ी (और निचली) जातियों के बीच हिंसक संघर्ष को जन्म दिया. 1950 में जमींदारी के उन्मूलन के बाद, पटना से कुछ किलोमीटर दक्षिण में स्थित पारसबीघा और दोहिया अशांत क्षेत्र बन गए. तत्कालीन टेकरी राज से अधिक से अधिक भूमि हड़पने की होड़ ने यादवों और भूमिहारों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया. 1979 में यह संघर्ष उस वक्त अपने चरम पर पहुंच गया, जब भूमिहारों द्वारा परसबीघा में एक हमला किया गया जिसमें एक यादव सहित 11 लोग मारे गए. बताया जाता है कि कुछ दिन पहले एक भूमिहार जमींदार की हत्या कर दी गई थी, यह हमला उसी का बदला था. पारसबीघा की घटना ने क्षेत्र के पिछड़ी जाति के लोगों को भड़का दिया. इसके चलते 8 फरवरी, 1980 को 2000 की संख्या वाली मध्यम श्रेणी की जातियों के लोग एक साथ आ गए. सशस्त्र भीड़ ने पारसबीघा कांड को अंजाम देने वाले भूमिहारों की तलाश में दोहिया पर हमला कर दिया. इस हमले में लूटपाट की गई, कई भूमिहार ब्राह्मण परिवारों की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और छेड़छाड़ की गई और एक बूढ़ी महिला की मौत हो गई.
References:
•Peasants and Monks in British India
By William R. Pinch · 1996
•The Modern Anthropology of India: Ethnography, Themes and Theory
edited by Peter Berger, Frank Heidemann
•Action Sociology and Development
By Bindeshwar Pathak · 1992
•Bihar men samajik parivartan ke kuchh ayam, 2001

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