Sarvan Kumar 13/07/2022
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Last Updated on 13/07/2022 by Sarvan Kumar

आपने “ठाकुर” शब्द जरूर सुना होगा. भारतीय फिल्मों में ठाकुरों को बड़े-बड़े हवेलियों में‌ रहने वाले रोबदार व्यक्ति के रूप में चित्रित किया जाता है जिसके पास बहुत जमीन होता है. ठाकुर से जाति, समूह और उपनाम संदर्भित होता है. इसी क्रम में आइए जानते हैं कुशवाहा ठाकुरों का इतिहास.

कुशवाहा ठाकुरों का इतिहास

सबसे पहले समझते हैं कि ठाकुर का अर्थ क्या होता है. ठाकुर मूल रूप से भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐतिहासिक सामंती उपाधि है. विद्वानों ने ठाकुर शब्द के लिए अलग-अलग अर्थ सुझाए हैं, जैसे- “भगवान, स्वामी, सामन्त और संपत्ति के स्वामी”. शिक्षाविदों का मानना है कि ठाकुर शब्द केवल एक पदवी या टाइटल था. ठाकुर एक उपाधि है जो बड़ी और छोटी रियासतों के राजाओं,बड़े ज़मीदारों को दी गई थी. सामंतवाद एक वर्ग आधारित ऐसी संरचना है जिसके तहत राजा समस्त भूमि का स्वामी माना जाता था. सामंतगण राजा के प्रति वफादार होते थे, और उसकी रक्षा के लिए सेना सुसज्जित करते थे और बदले में राजा द्वारा उन्हें भूमि दी जाती थी. सामंतों के स्वामित्व वाली भूमि की देखभाल और काश्तकारों द्वारा की जाती थी, जो सैन्य सुरक्षा के बदले में रईसों के साथ उपज साझा करते थे. भारतीय सामंतवाद आमतौर पर निम्नलिखित शब्दों से जुड़ा है- तालुकदार, जमींदार, जागीरदारी, सरदार, देशमुख, चौधरी, घाटवाल और ठाकुर. ठाकुर समाज के उस संभ्रांत वर्ग (Elite) का हिस्सा थे जिनकी संख्या कम थी लेकिन वह अपनी संख्या से कहीं ज़्यादा धन, राजनैतिक शक्ति या सामाजिक प्रभाव रखते थे. यह सामाजिक रुप से शक्तिशाली और संपन्न थे. ठाकुर उत्तर भारत के बड़े हिस्से में प्रमुख जमींदार रहे हैं. भारत में, कई जाति के सामाजिक समूहों द्वारा इस उपाधि का उपयोग किया जाता है जिनमें शामिल हैं- ब्राह्मण, कुशवाहा, राजपूत,चारण, अहीर, कोली, और जाट. कई जगहों पर कुशवाहा पूर्व जमींदार (या जमींदार) रहे हैं, जिनके पास आज भी बड़ी जोत है. वर्तमान समय में ठाकुर शब्द उपनाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. भारत के उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्र में ठाकुर राजपूत अगड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं. यह पाया जाता है कि उत्तर मध्य भारत में ठाकुर शब्द क्षत्रिय और राजपूत का पर्याय बन गया है.


References;

The Rajputs of Saurashtra

By Virbhadra Singhji

Gujarat. Popular Prakashan. 2003. p. 1591. ISBN 978-81-7991-106-8.

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