Ranjeet Bhartiya 27/07/2022

Last Updated on 27/07/2022 by Sarvan Kumar

कुर्मी भारत में निवास करने वाली एक महत्वपूर्ण कृषक-योद्धा जाति है. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में तथा आजादी के पश्चात देश के विकास में इस समुदाय के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. भारत के कई राज्यों में इनकी उल्लेखनीय आबादी है. वर्तमान में इन्हें भारत के अधिकांश राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्णित किया गया है. लेकिन फिर भी इन्हें सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, आर्थिक रूप से सक्षम माना जाता है. आइए जानते हैं कुर्मी ठाकुर के बारे में-

कुर्मी ठाकुर

ठाकुर शब्द आमतौर पर उत्तरी भारत और दक्षिण भारत के एक अगड़ी जाति को संदर्भित करता है. मध्य काल में और उपनिवेश काल में राजपूतों के नाम से जाने जाने वाले ठाकुर पूर्ववर्ती राजा, महाराजा, जमींदार और तालुकदार रहे हैं. प्रभावशाली अतीत होने के कारण आज ठाकुर समुदाय के लोग सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से काफी मजबूत हैं और समाज में इनका प्रभाव कायम है.लेकिन क्या आप जानते हैं ठाकुर शब्द का एक दूसरा मतलब भी होता है. ठाकुर का अर्थ होता है- स्वामी मालिक या सरदार. ठाकुर भारतीय उपमहाद्वीप की ऐतिहासिक उपाधि है जो बड़ी और छोटी रियासतों के राजाओं,बड़े ज़मीदारों को दी गई थी. भारत में कई जाति के सामाजिक समूह इस उपाधि का उपयोग करते हैं, जैसे- ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, अहीर, कोली, कुशवाहा और जाट, आदि. सोशल मीडिया पर ऐसे कई लोग हैं जो कुर्मी ठाकुर को सरनेम के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. तो यहां पे हम एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या कुर्मी भूमि स्वामी रहे हैं? आइए इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास करते हैं. बिहार की राजनीति जातीय समीकरण का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है. सभी राजनीतिक दलों का जमींदारों से गहरा संबंध रहा है. डॉ राम मनोहर लोहिया के सूत्रीकरण ने पिछड़ी जाति के धनाढ्य और अमीर तबकों को अपनी ओर आकृष्ट किया. कांग्रेस का संबंध हमेशा से उच्च जाति के जमींदारों से रहा है. वहीं, सोशलिस्ट पार्टी में पिछड़ी जाति के जमींदारों का बोलबाला हो गया विशेष रूप से मधेपुरा के यादव और नालंदा के कुर्मी जमींदारों का. औपनिवेशिक काल में सामाजिक सोपान में सबसे ऊपर अंग्रेज थे. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ जातियों का वर्चस्व था. वहीं, कोइरी-कुशवाहा, यादव और कुर्मी जैसी मध्यवर्ती जातियां इन क्षेत्रों में अपनी जगह बनाने के लिए प्रयासरत थीं. 1901 जनगणना के अनुसार पूरे बिहार में 94,286 जमींदार थे. भूमिहार जमींदारों के बीच अकेली सबसे बड़ी जाति थी. भूमिहार जमींदारों की संख्या 35,841 थी. ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ जमींदारों की संख्या क्रमशः 19,670, 23,121 और 9738 थी. बिहार में यादव, कुर्मी और कोइरी जमींदारों की संख्या 5,589 थी. इसमें कुर्मी जमींदारों की संख्या 4302 थी, 1217 यादव जमींदार थे, जबकि कोइरी के पास 70 जमींदारियां थीं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि भले ही भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूतों की तुलना में इनके पास जमींदारियां कम थी, लेकिन कुर्मी पिछड़ी जाति वर्ग के सबसे बड़े रसूखदार जमींदार थे.


References;

प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकान्त , बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम ( 1912-1990 ) , वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली

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